भारत: आज़ादी के 70 वर्ष बाद
प्रो. पुष्पेश पंत
आज़ादी के बाद से भारत की सात दशकों की यात्रा दुर्गम मार्ग से गुजऱी है. इसे अनेक बार सूखे का सामना करना पड़ा, युद्ध लड़े और विनाशकारी प्राकृतिक आपदाओं को झेलना पड़ा है. ये विस्मयकारी है कि चुनौतीपूर्ण प्रतिकूलताओं के बावजूद यह क्षण भर के लिये भी एक ऐसे समावेशी, समानतावादी समाज के निर्माण के अपने संकल्प से नहीं लडख़ड़ाया, जहां हर कोई ऊंचे सिर और भयमुक्त मनोभाव के साथ जी सकता है.
इसके अत्यंत पीड़ादायक अंतराल रहे हैं परंतु साझा उत्साह के दीर्घ मंत्र से इनकी प्रतिपूर्ति होती रही.
उपलब्धियां अनेक हैं
जन्म पर आयु की संभाव्यता में तीव्र वृद्धि हुई है और शिशु मृत्यु दर में कमी आई है. स्त्री-पुरुष न्याय समानता के प्रति बहुत जागरूकता आई है और हालांकि पितृसत्तात्मक मानसिकता पूरी तरह से परास्त नहीं हुई है, लेकिन किसी भी युवा को, जो कि आज के दिन हमारी जनसंख्या में बहुतायत में हैं, संदेह नहीं है कि इस मानसिकता के अब गिने चुने दिन रहे गये हैं.
भारत, जो कि एक समय लाखों लोगों की भूख मिटाने के लिये खाद्यान्नों के आयात पर निर्भर था, आज न केवल अनाज के उत्पादन में आत्म-निर्भर हो गया है बल्कि दुनिया में फलों, सब्जियों और दूध के सबसे बड़े उत्पादकों में इसकी गिनती होती है. यह उन मु_ीभर राष्ट्रों में शामिल है जो अंतरिक्ष की खोज के लिये रॉकेटों का प्रक्षेपण कर सकते हैं और शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिये परमाणु ऊर्जा का उपयोग किया है.
युवा भारत: राष्ट्र की वास्तविक संपत्ति
इन सबने युवाओं को अधिक महत्वाकांक्षी होने और अपने क्षेत्रों में सर्वाधिक उत्कृष्टता के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिये प्रेरणा भरी है. वे पुराने कौशलों के बोझ तले नहीं दबे रहते हैं. डिजिटल युग के ये बच्चे जोखि़म उठाने से नहीं डरते हैं और प्रखरता के साथ स्वतंत्र हैं. वे शिक्षा को महत्व देते हैं और अपनी अर्हताओं को बढ़ाने तथा अपने कौशलों में सुधार के लिये अस्थाई कठिनता का सामना करने को तैयार रहते हैं. वे अपने माता-पिताओं से कहीं अधिक उद्यमशीलता की भावना से भी ओत-प्रोत होते हैं. वास्तव में वे हमारे राष्ट्र की असली संपत्ति हैं. इस काल को अनुकूल जनसांख्यिकीय लाभांश के तौर पर संदर्भित किया जाता है जो कि आने वाले वर्षों में भारत को एक आधार प्रदान करता रहेगा.
प्रतिभावान भारतीय और मेहनतकश पेशेवर, कुशल श्रम भिन्न-भिन्न महाद्वीपों में राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं. ये लोग भारत को एक उच्च शक्ति के तौर पर प्रस्तुत करने में अपनी विशिष्ट भूमिका प्रदान करते हैं. संस्कृति समकालीन कूटनीति का एक महत्वपूर्ण घटक है और इस शब्द में संगीत और नृत्य, साहित्य तथा चित्रकला से कहीं अधिक व्यापकता है. विज्ञान और प्रौद्योगिकी, सुशासन में श्रेष्ठ व्यवहार, पर्यावरणीय सुरक्षा में गंभीर प्रतिबद्धता संस्कृति का अभिन्न अंग हैं. कोई भी राष्ट्र अतीत में गौरवशाली जीवन जीने का जोखिम नहीं उठा सकता है.
प्रगतिरोधक बेड़ी और अंधविश्वास केवल हमारे आर्थिक विकास को रोक सकते हैं.
हमारी निगाहें भविष्य के क्षितिज पर स्थिर रहनी चाहिए.
गंभीर चिंता के विषय:
यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिये कि तत्काल गंभीर चिंता का कोई मामला नहीं है. निर्वाचक राजनीति पर व्याकुल करने वाली जातिगत व्यवस्था कर गहरी परछाई जारी है. जिनकी निचले तबके के तौर पर पहचान की गई थी और अछूत माना गया था वे इस धब्बे और दमनकारी सामाजिक भेदभाव का शिकार होते रहे. कभी-कभार पुराने पूर्वाग्रह की हिंसा का बवाल फूट पड़ता. ऐसी घटनाएं पुराने घावों के निशान को खरोंच देती हैं जो कि लगभग भर चुके हैं-ये इनके तेज़ी से भरने की दिशा में हो रहे बदलाव के लिये ख़तरा बन जाते हैं.
इसी प्रकार, दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र अभी तक समाज के कुछ वर्गों में सुरक्षा की भावना को स्थापित नहीं कर पाया है. अफसोस यह भी है कि कथित पहचान की राजनीति के कारण यह गूढ़ रूप से पनपा है. हम सभी को अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है कि केवल राजनीतिक पहचान जो कि भारत के विचार के साथ संगत है वह ‘भारतीयता‘ है.
भारत महान विविधताओं-भौगोलिक, धार्मिक और भाषायी की भूमि है और यह दैदीप्यमान बहुलवाद हमारी अनुपम धरोहर है जिसने हमारी संस्कृति को समय के साथ समृद्ध बनाया है. अलग-अलग धर्मों के अनुयायी और बहुत ही भिन्न-भिन्न जीवनचर्याओं के लोग सौहार्दपूर्ण तरीके से रहते हैं. केवल औपनिवेशिक शासनकाल के दौरान ही था कि शासकों ने बांटों और राज करो की नीति अपनाई थी जिसने भारतीयों के बीच विवाद और शिकायत की भावना उत्पन्न कर दी थी.
जिन्होंने हमारे संविधान की रचना की थी वे बहुत ही बुद्धिमान लोग थे, संस्थापक बटवारे के बाद हुए खून खराबे और पांच सौ से अधिक रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने के मुश्किल एकीकरण को लेकर विचारमंथन कर रहे थे. टकराते हितों के बीच संतुलन कायम करने के वास्ते वायदे किये जा रहे थे और यह आशा की गई कि जो बात मानेंगे वे संकीर्णता और स्वहित से ऊपर उठेंगे. दुर्भाग्यवश सदैव ऐसा नहीं हो सका. कुछेक ऊंची आशाएं झूठी साबित हुईं.
पिछले तीन या चार वर्षों में जैसा कि देश ने निर्जीवता और निराशा के प्रसार पर अंकुश लगाने का प्रयास किया है. इस बात को लेकर व्यापक जागरूकता है कि नई चुनौतियां उभरकर सामने आई हैं. वैश्वीकरण की प्रक्रिया के अधीन न केवल भारत का पड़ौस विशेष रूप से प्रतिरोधी बना हुआ है, इसका सामाजिक तानाबाना प्रक्रियाओं के कारण अत्याशित दबाव में है.
बार-बार प्रधानमंत्री ने यह दोहराया है कि एकमात्र पुस्तक जिसे वे पवित्र मानते हैं, भारत का संविधान है. संविधान में स्पष्ट रूप से भारत के लोगों-इसके नागरिकों के मौलिक अधिकारों को परिभाषित किया गया है. लेकिन अधिकतर समय हम में से ज्यादातर भूल जाते हैं कि कत्र्तव्यों के बिना कोई भी पूर्ण असीमित नहीं हो सकता. इसी संविधान में न्यायोचित प्रतिबंधों के बारे में विवरण प्रदान किया है जो कि जनता की भलाई के लिये मौलिक अधिकारों को सीमित कर सकते हैं.
एक अन्य चिंता का कारण है कि विभिन्न संवैधानिक प्राधिकरणों और संस्थानों के बीच कार्याधिकार क्षेत्रों की प्रतिस्पर्धा का टकराव है. न्यायपालिका और विधायिका के बीच का रिश्ता स्पंदनशील लोकतंत्र में शायद ही कभी सुखकर और सुविधापूर्ण रहा है परंतु रस्साकशी कभी क्रोध के रूप में सामने नहीं आती. न ही लोकतंत्र के ये दो स्तम्भ एक दूसरे के खिलाफ लड़ाई में तीर कमान लेकर खड़े नजऱ आते. यद्यपि किसी भी मत भिन्नता, असहमति या मतभेद को संवैधानिक संकट के तौर प्रस्तुत करना एक छाप बन गई है, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि 1950 के बाद से अनुभव के प्रकाश में कुछ मौलिक क्षेत्रों की संवीक्षा और स्पष्टीकरण करने की तत्काल आवश्यकता है.
इसी तरह जो राज्यों में शासन करते हैं उनके लिये यह अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है कि हमारी संघीय प्रणाली का केंद्र के प्रति झुकाव है. कोई भी राज्य-चाहे बड़ा हो या रणनीतिक रूप से संवेदनशील सीमा के साथ स्थित है-विशेष दर्जे का दावा नहीं कर सकता. जम्मू एवं कश्मीर से पश्चिम बंगाल और उत्तर पूर्व तक, महत्वाकांक्षा अपनी स्वतंत्रता हासिल करने के लिये लोकलुभावन प्रवृत्ति की रहती है. यदि इसकी निगरानी न की जाये तो यह अराजकता को ही बढ़ावा देगी.
‘भारत का विचार‘ और संविधान की पवित्रता
जब कर्कश आवाजें उठाई जाती हैं और भ्रामक स्थिति उत्पन्न की जाती है कि संविधान को विकृत किया जा रहा है और भारत के विचार को नष्ट किया जा रहा है यह आवश्यक हो जाता है कि बिखराव को पक्षपातपूर्ण आलोचना से अलग करें. लोकतंत्र में संविधान अतिपवित्र होता है परंतु धार्मिक आशाओं की तरह इसे पत्थर में नहीं ढाला जाता है. यह एक जीवंत दस्तावेज होता है और जब तक यह लोगों की राय को प्रतिबिंबित करता रहेगा प्रभावी सामाजिक अनुबंध के तौर पर बरकरार रहेगा. आदर्श रूप से लोगों की सहमति प्रकट होती रहनी चाहिये. वास्तविक जीवन में ऐसा मुश्किल से घटित होता है. इस संदर्भ में मन में दो महत्वपूर्ण बातें लगातार उत्पन्न होनी चाहियें. हालांकि बहुत अधिक उनके प्रति संवेदनशील होना चाहिये जो अल्पसंख्यक हैं. साथ ही कोई भी अल्पसंख्यक लोकतांत्रिक वीटो का दावा नहीं कर सकते हैं जो कि सरकार के नीति निर्माण के मार्ग को ही अवरुद्ध कर दे, जिसने लोगों का मत जीता है.
जिन विचारधाराओं -साम्राज्यवाद, साम्यवाद, फासीवाद, समाजवाद-जिनका घरेलू राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में प्रभुत्व 20वीं सदी में अप्रासंगिक हो गया-उनमें अब लोगों को एकजुट करने की शक्ति नहीं रह गई है. न ही पूंजीवाद के समर्थक ‘लोगों के दिलों और मन पर राज करने‘ का दावा कर सकते हैं. जबकि भारत को सभी दिशाओं और विविध स्रोतों से उत्तेजक विचारों के लिये अपने दरवाजे और खिड़कियां खुली रखनी, हमें यह अत्यंत सावधानी बरतने की आवश्यकता है कि हम क्या स्वीकार, अनुकूलन और अनुपालन करते हैं. हमें अपनी आज़ादी के अवसर पर राष्ट्रपिता की चेतावनी को कभी नहीं भूलना चाहिये कि हमें अपने पांवों को अपनी पैतृक मिट्टी में अच्छी तरह से जमाकर रखना चाहिये जो किसी भी बाहरी हवा के झौंके से न उखड़ पाये.
यह हमारे मन में सर्वाधिक जटिल चुनौती है कि भारत अभूतपूर्व खुशहाली और शक्ति के वायदों के पूर्ण भविष्य की दहलीज पर खड़ा है. खुशहाली अपने साथ अप्रत्याशित समस्याएं लेकर आती है. विकासशील देश में सामाजिक और आर्थिक विषमताएं स्पष्ट और असहनीय पीड़ादायक हो जाती हैं. यदि उत्कृष्टता और इक्विटी, विकास और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन खत्म होता है जिसके परिणामस्वरूप केवल सामाजिक अशांति और राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होती है.
झूठे युग्मक: वैश्विक और स्थानीय, आधुनिक और परंपरागत
आधुनिकता की पूजा इसके भौतिकवादी अवतार में करना और सर्वपक्षीय चरण पर हमारी पहुंच की घोषणा की जल्दी में ‘वैश्विक‘ संस्कृति को गले लगाना हमारे टिकाऊपन और सामाजिक मूल्यों को खोजने का बहुत गंभीर जोखिम संचालित करता है. अत्यधिक संक्रामक रोग के लक्षण पहले ही दिखाई देने लगते हैं.
लोगों ने अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों को उनकी प्रतिष्ठा से नहीं बल्कि उनके कार्यनिष्पादन के आधार पर जांचना शुरू कर दिया है. यह अत्यधिक संतोष का विषय है. भारतीय लोकतंत्र इसके अस्तित्व के 70वें वर्ष में परिपक्व हो गया प्रतीत होता है.
भ्रष्टाचार और स्वमताभियान के खिलाफ लड़ाई अंतहीन है. न ही हम भूख और बीमारी जैसे दुश्मनों के विरुध अपने रक्षकों को कम कर सकते हैं. वायरस लगातार उत्परिवर्तित होता है और इनसे उत्पन्न खतरों के प्रति हमारे प्रत्युत्तर में सुधार करने और तदनुसार इनकी जांच परख करने की ज़रूरत है.
15 अगस्त का दिन राष्ट्रीय कैलेंडर में स्वाधीनता सेनानियों को श्रद्धांजलि अर्पित करने और विविध क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियों की खुशियों का जश्न मनाने के लिये चिन्हित किया जाता है. यह दिन हमारे लिये अपनी आज़ादी के विचारों, शब्दों और कर्म से संरक्षा करने और इसके संरक्षित क्षेत्र की निरंतरता और प्रत्येक भारतीय की उज्ज्वलता को समृद्ध करने के लिये पुन:समर्पित करने का भी दिन है.
(लेखक : स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के
पूर्व प्रोफेसर हैं. ई-मेल : pushpeshpant@gmail.com
लेखक के विचार उनके अपने हैं.)