रोज़गार समाचार
सदस्य बनें @ 530 रु में और प्रिंट संस्करण के साथ पाएं ई- संस्करण बिल्कुल मुफ्त ।। केवल ई- संस्करण @ 400 रु || विज्ञापनदाता ध्यान दें !! विज्ञापनदाताओं से अनुरोध है कि रिक्तियों का पूर्ण विवरण दें। छोटे विज्ञापनों का न्यूनतम आकार अब 200 वर्ग सेमी होगा || || नई विज्ञापन नीति ||

विशेष लेख


Volume-18, 4-10 August, 2018

 

भारत छोड़ो आंदोलन: हमारे स्वतंत्रता संघर्ष में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर

8 अगस्त, 1942 को बम्बई में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति अधिवेशन में भारत छोड़ोप्रस्ताव पारित करने के साथ ही, मर मिटने की घोषणा कर दी गई और गांधी जी के निजी सचिव प्यारेलाल के शब्दों में ‘‘करो या मरो’’ के युग का सूत्रपात हो गया. अगली सुबह (9 अगस्त 1942 को) गांधी जी और कार्य समिति के सदस्यों को डिफेंस ऑफ  इंडिया रूल्स के अधीन हिरासत में ले लिया गया. कार्य समिति के सदस्यों की अहमदनगर जिले में नजऱबंदी को गुप्त रखा गया, जबकि इस बात को सार्वजनिक कर दिया गया कि गांधी जी और उनकी पार्टी को आगा खां पैलेस, पूना में रखा गया है. सभी कांग्रेस समितियों को ग़ैर कानूनी संगठन घोषित कर दिया गया, इलाहाबाद में कांग्रेस मुख्यालय को सील कर दिया गया और एआईसीसी कोष को जब्त कर लिया गया. प्रत्येक प्रांत में बड़े पैमाने पर कांग्रेसियों की धरपकड़ शुरू हो गई. समाचार पत्रों और टिप्पणियों के प्रकाशन पर आधिकारिक नियंत्रण कायम करने के लिये अध्यादेश और नये डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स जारी कर दिये गये जिससे कई समाचार पत्रों ने विरोध स्वरूप अपने प्रकाशन ही बंद कर दिये. आंदोलन की अवधि के लिये लखनऊ से नेशनल हेराल्ड और हरिजन को बंद कर दिया गया. हालांकि नेताओं की गिरफ्तारी की पहली प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक रूप

से सामान्यरही. देश भर में अनायास हड़तालें और बैठकें आयोजित की जा रही थीं. कुछ स्थानों पर जुलूस भी निकाले गये परंतु प्रदर्शन शांतिपूर्ण और अहिंसक थे. लेकिन सरकार द्वारा क्रूर कदम उठाये जाने से स्थिति उग्र हो गई. नये डिफेंस ऑफ  इंडिया रूल्स से दुकानें और रेस्तरां को बंद करने से रोक दिया गया. नियमों में अतिरिक्त प्रावधानों के जरिए प्रांतीय सरकारों को कानून और व्यवस्था लागू करने और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बनाये रखने के लिये स्थानीय प्राधिकारियों से ऊपर शक्तियां प्रदान कर दी गई. 11 अगस्त का दिन था जब पुलिस ने जुलूस निकालने वालों के खिलाफ बल प्रयोग किया, उन पर लाठीचार्ज किया और यहां तक कि उन्हें तितर-बितर करने के लिये गोलियां चला दीं जिससे आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया. फं्रैडस सर्विस काउंसिल, लंदन के होरेक्स अलेग्जेंडर और एक सुविख्यात ब्रिटिश पत्रकार, जिन्होंने उस अवधि के दौरान भारत की यात्रा की थी, ने इस बात की पुष्टि की कि ‘‘यह पुलिस का दमन था जिसने भीड़ को हिंसक बना दिया जो कि बहुत शांतिपूर्वक कार्रवाई करना चाहती थी’’. गांधी जी ने लॉर्ड लिनलिथगो को लिखे अपने पत्रों में (दिनांक 29 जनवरी 1943 और 7 फरवरी 1943) इसे लियोनिन हिंसाकरार दिया जिसने ‘‘लोगों को हिंसा के लिये प्रेरित किया’’. इसके बाद हड़तालों, विरोध सभाओं और समान तरह के प्रदर्शनों के अलावा, जिनकी अपेक्षा थी, हिंसक भीड़, आगजऩी और हत्याएं तथा तोड़-फोड़  शुरू हो गई. सर्वाधिक प्रभावित वह क्षेत्र थे जहां लोगों पर कांग्रेस की सबसे अधिक पकड़ थी अथवा जहां संघर्ष के कारण उत्पन्न आर्थिक संकट से लोग कठिन दौर में थे. संघर्ष में समूचे उत्तर बिहार, उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों, मद्रास, बंगाल के मिदनापुर, ओड़ीशा के तटीय क्षेत्रों, बम्बई में सतारा, खानदेश और भडूच ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. असम और सिंध में तुलनात्मक दृष्टि से कम गड़बड़ी थी जबकि पंजाब और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत प्रतीकात्मक रहे. उत्तर प्रदेश में बलिया जिला, बंगाल में मिदनापुर, बम्बई में सतारा और बिहार का बड़ा हिस्सा ब्रिटिश प्रशासन को धराशाही करने और अपनी खुद की सरकार स्थापित करने में कामयाब हो गया जिसने कुछ समय के लिये प्रभावी तौर पर काम किया. अगस्त के अंत तक पुलिस और सेना की कठोर कार्रवाई, आधिकारिक रिपोर्ट- गड़बडिय़ों के लिये कांग्रेस की जिम्मेदारी, 1942-43’ से उद्धृत’’, मुख्यत: असम को छोडक़र व्यापक अराजकता को दबाने में सफल हो गई, जहां पर कुछ देरी से गड़बड़ी की शुरूआत हुई थी. सितंबर के दूसरे सप्ताह तक आंदोलन का पहला चरण समाप्त हो गया लग रहा था जब पूर्वी प्रांतों को छोडक़र ज़्यादातर प्रभावित क्षेत्रों में सामान्य स्थिति बहाल हो गई. आंदोलन भूमिगत हो गया और नियोजित प्रकृति के संकेन्द्रित हमले कम्युनिकेशन्स, सरकारी भवनों और संस्थानों पर किये गये. शीघ्र ही बम्बई, केंद्रीय प्रांतों और उत्तर प्रदेश में बम अपनी उपस्थिति दजऱ् कराने लगे. वे पहले देसी और अप्रभावी थे परंतु ‘‘तकनीकी सुधार तेज़ी से हुए और आंदोलन के 12वें सप्ताह तक बम और अन्य विस्फोटक प्रणाली, कुछेक अत्यधिक खतरनाक प्रकृति के, विशेषकर बम्बई में काफी व्यापक पैमाने पर प्रयोग में लाये गये.’’ आंदोलन में वर्ष के अंत तक आवेश कमज़ोर हो चुका था, यद्यपि मई 1944 में गांधी जी के रिहा होने तक छिटपुट घटनाएं जारी रहीं.

सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिये कठोर से कठोर कदम उठाये. तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंसटन चर्चिल ने हाउस ऑफ  कामन्स में (10 सितंबर 1942 को) कहा था,‘‘उपद्रवों को सरकार की पूरी ताकत के साथ कुचल दिया गया.....भारत में बड़ी संख्या में सुरक्षा बल पहुंचा दिये गये हैं और उस देश में श्वेत सैनिकों की संख्या हालांकि इसके आकार और जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है लेकिन ब्रिटिश संपर्क क्षेत्र में किसी एक समय पर यह सर्वाधिक है’’. सैंकड़ों की संख्या में लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में भेज दिया गया, सेना और पुलिस की फायरिंग में बड़ी संख्या में लोग मारे गये. संबंधित व्यक्तियों की स्थिति और दर्जे की पूर्ण अवहेलना करते हुए अपमान, दुव्र्यवहार, चोट यहां तक कि हमले तक किये गये. कई लोगों पर दंड और भारी सामूहिक जुर्माने लगाये गये अथवा के सी नियोगी, सेंट्रल असेम्बली के एक सदस्य, के अनुसार साम्प्रदायिकजुर्माने अनेक क्षेत्रों में लागू कर दिये गये. आधिकारिक सूत्रों के अनुसार कुल जुर्माने की राशि 90 लाख रु. से अधिक थी जिसका अधिकतर हिस्सा हिंदुओं से वसूला गया था. लिनलिथगो, वायसराय ने बिहार के गवर्नर टी स्टीवर्ट से विशेष तौर पर मुसलमानों से जुर्माना नहीं लेने को कहा था’’. सर तेज बहादुर सप्रू, अध्यक्ष, ऑल इंडिया लिबरल फेडरेशन ने इस सामूहिक साम्प्रदायिक जुर्माने की आलोचना की. सर तेज बहादुर ने कहा था, ‘‘हिंदुओं से सामूहिक जुर्माना वसूला जा रहा है, मैं नहीं जानता कि यह किन सिद्धांतों पर आधारित है.’’ उन्होंने एक अंग्रेज़ मित्र से कहा, ‘‘यदि आप हिंदुओं का इतना उत्पीडऩ करते हैं तो आप विध्वंसकों और मित्रों के बीच अंतर नहीं कर सकते, क्यों न आप सभी राजनीतिक शक्तियां जिन्नाह को सौंप देते.’’ केंद्रीय असेंबली के अनेक सदस्यों ने सेना और पुलिस द्वारा लोगों पर ढहाये गये जुल्म की जांच करने के लिये एक आयोग की स्थापना की मांग की जिसमें गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत हो. के सी नियोगी ने प्रशासन पर अनेक आरोप लगाये, जैसे कि ‘‘सेना और पुलिस की लोगों से आम लूट और आगजनी तथा संपत्ति को अकारण क्षति पहुंचाना, ऐसे स्थानों पर बिना सोचे समझे गोलीबारी करना जहां पर किसी तरह का कोई उपद्रव नहीं था, सिर्फ  प्रभाव छोडऩे के वास्ते, मासूम लोगों पर अकारण गोली चलाना जबकि उपद्रव पहले ही समाप्त हो चुके थे, अहिंसक भीड़  या व्यक्तियों पर हमला या गोली चलाना, निर्ममतापूर्ण हमले, विशेषकर सभी पर दुव्र्यवहार और अपमान तथा क्रोध करना.’’ यहां तक पांच स्थानों- बिहार में पटना, भागलपुर और मुंगेर, बंगाल में नाडिया और तलछर सिटी में भीड़ पर हवा में मशीन गनों का भी प्रयोग किया गया. 15 अगस्त 1942 को वायसराय ने विदेश मंत्री को बताया कि उसने बिहार में उपद्रवियों पर हवा से मशीनगन चलाने के लिये अधिकृत किया है और यदि आवश्यकता हुई तो अन्य क्षेत्रों में भी इस हथियार का सहारा लेना होगा. परंतु इन उपायों को प्रेस के लिये जारी होने वाले बयानों से दूर रखा गया और चर्चिल ने गर्व के साथ कहा, ‘‘एक समय जिसका इतना डर था कि वह भारत में गंभीर विद्रोह का रूप ले लेगा,  1857 का सैनिक विद्रोह कुछ ही महीनों में बगैर किसी जनहानि के विफल हो गया था.’’ निस्संदेह उनका आशय ब्रिटिशों के जीवन की हानि से था. पूरी शुद्धता के साथ यह आकलन करना कठिन है कि वास्तव में कितनी संख्या में लोगों ने इन निर्दयतापूर्ण सजाओं अथवा आज़ादी के लिये शहीद हुए लोगों की मृत्यु की भत्र्सना की होगी. आधिकारिक रिकॉर्ड न तो पूर्ण हैं और न ही एकदम सही हैं. कुछेक अन्य स्रोतों में भी आंकड़ों का उल्लेख है, परंतु वे विश्वसनीय नहीं हैं. अगस्त से दिसंबर तक नागरिकों की मौतों के बारे में आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 1040 लोग मारे गये और कई अन्य घायल हो गये. निश्चित तौर पर पुलिस और सेना की गोलीबारी के मद्देनजऱ यह संख्या कम आंकी गई है. आधिकारिक तौर पर, भीड़ पर हवा में चलाई गई मशीन गनों के अलावा, इसे 689 दजऱ् किया गया था. जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, मृतकों की संख्या 4000 और 10000 के बीच अवश्य रही होगी जो कि एक अनुमान ही हो सकता है. 1943 के अंत तक 150000 व्यक्तियों की गिरफ्तारी की जा चुकी थी. क्षति की लागत आधिकारिक तौर पर कऱीब 30 लाख रु. होने का अनुमान लगाया गया.

सरकार की नीति के विरोध के तौर पर अनेक भारतीयों ने अपनी पदवी छोड़ दी. इनमें सिंध के प्रमुख अल्लाह बख्श शामिल थे जिन्हें गवर्नर ने ‘‘उनके हालिया सम्मान के त्याग’’ के लिये बर्खास्त कर दिया था. वायसराय कार्यकारी परिषद के तीन सदस्यों एच पी मोदी, एन आर सरकार और एम एस अनेय ने बाद में (17 फरवरी 1943 को) ‘‘एक मौलिक मुद्दे’’ नामत: गांधी जी के अनशन को लेकर पद छोड़ दिया. कुछेक यूरोपीय अधिकारियों को भी कांग्रेस के प्रति उनके सहानुभूतिपूर्ण रवैये के कारण परेशानी उठानी पड़ा. स्टेट्समैन के संपादक सर आर्थर मूरी, जिन्होंने लार्ड लिनलिथगो की नीति की आलोचना करते हुए कई आलेख लिखे थे और एल एस आमेरी तत्कानीन विदेश सचिव को दबाव में इस्तीफा देना पड़ा. पंजाब के एक आईसीएस अधिकारी ई पी मून को पेंशन के बिना घर बैठना पड़ा था क्योंकि उन्होंने एक प्रतिष्ठित महिला की एक निम्न श्रेणी में हिरासत पर उस महिला के भाई को लिखे एक निजी पत्र में आलोचनात्मक टिप्पणियां की थीं, जिसे आंतरिक सेंसरशिप में दबा लिया गया. बिहार के गवर्नर सर थामस स्टीवर्ट ने कुछेक अधिकारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जो उनकी राय में अपने प्राधिकार क्षेत्र से बाहर चले गये थे. कुछ माह बाद उन्हें स्वास्थ्य संबंधी कथित कारणों के आधार पर इस्तीफा देना पड़ा था.

(डा. पी एन चोपड़ा द्वारा रचित प्रकाशन विभाग की पुस्तक भारत छोड़ो आंदोलन से उद्धरण)