कोलाचल का युद्ध (1741)- एक यूरोपीय
कोलाचल, वर्तमान में तमिलनाडु के कन्याकुमारी (केप कोमोरिन) जि़ले में स्थित है, जो पहले भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिण पश्चिमी भाग में स्थित त्रावणकोर के शाही राज्य का हिस्सा था। कोलाचल में, 1741 में डच ईस्ट इंडिया कंपनी तथा त्रावणकोर के शासक अनिझम तिरुनल मार्तंड वर्मा (1729-1758) के बीच लड़ाई लड़ी गई। कोलाचल के 1741 के युद्ध में त्रावणकोर के राजकुमार ने डचों को हराकर भारत में उनके पतन की रेखा खींच दी जिससे वे बताविया (जकार्ता) वापस लौटने को मजबूर हो गए। त्रावणकोर की इस उल्लेखनीय विजय को दक्षिण एशिया के बहुत से इतिहासकारों द्वारा अनदेखा किया गया जबकि 1905 के रूस-जापानी युद्ध की भूमिका को एशियाई राष्ट्रीयता को बढ़ावा देने में काफी अहमियत देते हुए प्रस्तुत किया गया। रूस पर जापान की विजय से डेढ़ दशक पूर्व (ठीक 164 वर्ष पूर्व) त्रावणकोर के छोटे से राज्य ने पश्चिम भारत में डच शक्ति को बुरी तरह मसल कर रख दिया जो कि डचों के लिए एक खतरे कि निशानी की तरह था कि वे भारतीय तट़ तक पहुंचने की बजाय बतावियाई क्षेत्र में अपनी स्थिति को संगठित करें। कोलाचल की लड़ाई के परिणाम और इसके प्रभाव ने एशिया और अफ्रीका के पुनरुत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। इसने उन पूर्व मान्यताओं को तोड़ा कि यूरोपीय अजेय हैं।
मसालों का व्यापार और यूरोपीय
भारतीय इतिहास (1498) में वास्कोडिगामा युग के प्रारंभ ने पुर्तगालियों को न केवल तीन दर्जन से अधिक रियासतें बल्कि इसके अलावा पश्चिमी भारत के चार प्रमुख साम्राज्य जैसे वेनाड़, कोचीन, कोझिकोड तथा कोलाथुनाद भी प्रस्तुत किए। 1580 में स्पेन के साथ पुर्तगाल के विलय तक पुर्तगालियों ने अपनी ब्लू वाटर पॉलिसी तथा मिश्रित कॉलोनियों के द्वारा अपनी स्थिति को स्थिर किया ।
अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के पास दक्षिण भारत के मलयालम तट में केवल दो प्रमुख उपनिवेश- मलाबार में तलास्सेरी तथा त्रावणकोर में अनजेनगो थे। पुर्तगाली बाहर हो चुके थे तथा अंग्रेज केवल अपनी स्थिति को स्थिर बनाने के लिए आ रहे थे। देश के राजाओं खास तौर पर कोचीन के राजा के पूर्ण सहयोग से डच बेहतर स्थिति में थे। केरल में डच नीति कम से कम खर्च में अधिक से अधिक काली मिर्च प्राप्त करने के एकल विवेचन पर शासित थी।
डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने एशियाई देशों के साथ व्यापार और वाणिज्य पर ध्यान दिया तथा उनकी नीति सस्ता खरीदकर मंहगा बेचने की थी। पूर्व में राजनीतिक स्थितियां ऐसी सहायक नहीं थीं कि वे चर्चाओं, संधियों तथा युद्ध का आश्रय लें। डच ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासनिक मुख्यालय जावा के निकट बताविय में था। परिषद में गवर्नर जनरल द्वारा सभी मामलों पर निर्णय लिया जाता था। पश्चिमी तट पर तांगास्सेरी (कोल्लम), कोचीन और कन्नूर पर आधिपत्य करने के बाद डच हितों का ध्यान कमांडर द्वारा रखा जाता था ताकि किलों का निर्माण किया जा सके, सेना स्थापित की जा सकी, संधियों को निर्णायक स्थिति दी जा सकी, हालांकि इसका निरीक्षण बतावियाई सरकार द्वारा किया जाता था।
मलाबार तट पर डच
1604 से 1697 के प्रथम चरणों में डचों ने अपने हितों के क्षेत्र स्थापित किए जो जल्द ही उपनिवेश बन गए। पश्चिमी तट पर पुर्तगालियों की नृशंस नीतियों ने पुर्तगाली व्यापारियों को मलयालम भाषियों के लिए अवांछित बना दिया। पुर्तगाली मुख्यालय को गोवा ले जाने का यह भी एक कारण था। डच व्यापारी को स्थानीय जनसंख्या द्वारा हमेशा आदर दिया जाता था और उन्हें तरजीह दी जाती थी।
पुर्तगालियों के विपरीत डचों ने स्वंय को सौम्य, सभ्य और अनुशासित रूप में प्रस्तुत किया। डच के पक्ष में इस माहौल का अधिकतम इस्तेमाल किया गया खास तौर पर 1658 में सिलोन (श्रीलंका) पर डच विजय के उपरांत। कोझिकोड के जमोरिन ने पुर्तगाली शक्ति और प्रभाव को नष्ट कर 7 जनवरी 16६3 तक कोचीन और 15 फरवरी 1663 तक कन्नूर में उनके आधिपत्य को स्थापित करने में सहायता का हाथ बढ़ाया। डच अधिकारी धीरे धीरे कोचीन रियासत के निर्णय लेने लगे। वे सीमा शुल्क, राजकीय किराया, कर और जुर्माना वसूल करते थे। वे अदालती मामलों में हस्तक्षेप करते थे तथा उन्होंने तंबाकू, नमक, गेंहू आदि के व्यापार में एकाधिकार स्थापित किया।
डच नीतियों की मज़बूती तथा प्रभावोत्पादकता ने उन्हें 17 वीं सदी तक केरल तट पर सर्वाधिक स्वीकार्य तथा न्यूनतम आपत्तिजनक बना दिया। वान रीड, डच गवर्नर ने कोल्लम, कार्तिकपल्ली, पुरक्कड, कोझीकोड तथा कोलातुनाड के राजाओं के साथ सैन्य दबाव के साथ संधियों पर संतुष्टि दर्ज की है। आपसी आदर और समझ से डच ने वेनाड, कायमकुलम, तेक्कमकूर और कोचीन के साथ संधियों पर हस्ताक्षर किए। इसके साथ ही केरल तट पर डच आधिपत्य एक वास्तविकता बन गया ।
त्रावणकोर का उदय
छोटे से रियासत से वेनाड त्रावणकोर के रूप में तब उभरा जब मार्तंड वर्मा ने 1729 में उन सभी का विध्वंस कर अपनी शक्ति स्थापित की जिन्होंने वंश परंपरा के नाम पर विद्रोह का झंडा बुलंद किया था। उनके पूर्ववर्ती राजा द्वारा ने मृत्यु शैया पर अपने भतीजे को राजगद्दी का आशीष देने के साथ ही वो राजगद्दी से जुड़ गए । अपने सैन्य कौशल सामथ्र्य के साथ मार्तंड वर्मा आधुनिक त्रावणकोर राज्य के निर्माता बन गए, जो बाद के वर्षों में श्री चित्तिरा तिरूनल बलराम वर्मा (1931-1947) के अधीन ‘आदर्श राज्य’ बना । मार्तंड वर्मा ने विजय, राज्य पर कब्जा और एकीकरण की नीति के माध्यम से अपने साम्राज्य की सीमाओं का दक्षिण में कन्याकुमारी से लेकर कोचीन राज्य से कराप्पुरम (आधुनिक चेरताला) तक विस्तार किया।
डच जो उस समय कोचीन में भली-भांति स्थापित थे, वे बैचेन हो उठे क्योंकि वे जानते थे कि वह आक्रमण का अगला लक्ष्य होंगे। इस स्थिति में डच सेना त्रावणकोर की दक्षिणी सीमाओं की ओर की तरफ रुख करने लगी ताकि त्रावणकोर के शासक को झटका दिया जा सके । एक कुशल प्रशासक होने के नाते मार्तंड वर्मा ने अपने साम्राज्य के दक्षिणी भाग से डच आक्रमण के खतरे को भांप लिया । दूसरे शब्दों में वे कन्यापुरी और थेंगापट्टनम और अंतत: कोलाचल तक डचों के रुख से अनभिज्ञ नहीं थे।
1739 में मार्तंड वर्मा और वान इम्हॉफ (डच गवर्नर) आमने सामने थे। यह केरल तट पर राजनीतिक और वाणिज्यिक आधिपत्य का प्रश्न था, कौन श्रेष्ठ था
जब त्रावणकोर व्यापार समझौते के लिए राज़ी नहीं था, डचों ने खुले रूप से त्रावणकोर के शत्रु कोल्लम के देसिगनानाडु का समर्थन किया। अगस्त 1739 में नेदुमंगड के नज़दीक घाटी में चार जंगली हाथियों को पकडऩा उकसावे की तात्कालिक वजह बना। देसिगनानाडु ने दावा किया कि हाथी उसके थे । कोचीन, पुरक्कड तथा तेक्कुमकूर जैसी छोटी रियासतों के अलावा डचों से मिल रहे पूरे समर्थन की वजह से मार्तंड वर्मा ने इसका विरोध किया। यहां तक कि इन चार ताकतों ने मिलकर मार्तंड वर्मा को आगे बढऩे से रोकने के लिए 21 सितंबर 1739 को कोचीन में सैन्य गठबंधन भी बनाया।
इस बीच, मार्तंड वर्मा ने डच और कोल्लम को संयुक्त रूप से आगे बढऩे से रोकने के लिए 3000 सैनिकों की शक्ति भेजी । स्टेन वान गोल्लइनेस केवल 300 सैनिकों का अतिरिक्त सैन्य बल ही भेज सका। कोलंबो में डचों ने कोल्लम खासकर उनके तंगस्सेरी उपनिवेश को बचाने के लिए आदेश जारी किए जिसमें असफल रहने पर दक्षिण में काली मिर्च के व्यापार से डचों की पकड़ समाप्त होने का जोखिम रहता। कैप्टन जोआन्स हैकर्ट के अधीन यूरोपीय सैनिकों की दो कंपनियों और भारतीय सैनिकों की दो कंपनिया तथा कोचीन के राजा की दो कंपनियों के आगमन से वे संयुक्त रूप से त्रावणकोर सैन्यबल से मिली। दिन के समय डच जो विध्वंस करते त्रावणकोर रात भर में उसे पुन: निर्मित कर लेते। डच त्रावणकोर की आय के मुख्य स्रोत, काली मिर्च के बागान और कपड़ा उद्योग को सीधे तटीय आक्रमण से नष्ट कर देना चाहते थे। यह योजना डच कमांडर वान इम्हॉफ द्वारा 1739 में तैयार की गई ।
युद्ध
डचों को सिलोन से कोई अतिरिक्त सैन्य बल नहीं मिला जिसकी उन्हें आशा थी। मौसम बिगडऩे के कारण डचों को अपना आक्रमण और अधिक रोकना पड़ा। डचों ने, हालांकि 26 नवंबर 1740 को कोलाचल पर गोलाबारी शुरू कर दी और लगातार तीन दिनों तक करते रहे। डच जहाजों ने भी कोल्लम और कन्याकुमारी के बीच बंदरगाहों को अवरोधित कर दिया। निवासी तेज़ी से निकल भागे। कपास उद्योग में तबाही को रोकने के लिए मार्तंड वर्मा ने 2,000 की मज़बूत सैन्य शक्ति भेजी। हालांकि अंग्रेज काफी प्रभावित हुए थे किंतु वे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे। स्टेन वान गोल्लइनेस कोचीन के साथ बड़े बेड़े को लाया था पर वो अधिक कुछ नहीं कर सकता था। कैप्टन हैकार्ट कमांडर इन चीफ था, एनरिस लेसलोनार्ट किलों का निरीक्षक बना और जोहान क्रिस्टियन रिगलेट को डच सेना का कमांडर बना गया। स्टेन गोल्लइनेस तट पर शीर्षस्थ भूमिका में बना रहा। शुरूआत में कोलाचल में त्रावणकोर सेना की बागडोर राम वर्मा, राजमहल के दूसरे राजकुमार, के पास थी जिसमें 600 सैनिक शामिल थे इसमे से 300 मारवा थे। यहां तक कि डच भी उन्हें पराजित नहीं कर सके चूंकि वे एशियाई इतिहास के बेहद अहम वक्त से गुजर रहे थे। कोलाचल और कोल्लम के कमांडर ने कोचीन से सैन्य सहायता की मांग की और कोचीन ने तूतीकोरिन (तुत्तूक्कुडी) से। तूतीकोरीन ने कोलंबो से यह मांग रखी और कोलंबो ने बताविया से और बताविया अतिरिक्त सैन्यबल प्रदान नहीं कर सका क्योंकि वह गृह सरकार से इसकी आशा नहीं कर सकता था।
डचों के उच्च और निम्न अधिकारियों के बीच संबंध अच्छे नहीं थे। गोल्लइनेसको हैकार्ट में कमियां लगी और हैकार्ट ने लेसलोनार्ट को इसके लिए दोषी ठहराया कि वह कोलाचल मे डच किले का निर्माण पूरा नहीं कर सका। कोलाचल के कमांडर रिजटेल ने कोचीन में डच काउंसिल को लिखा कि ‘‘भारतीय इतिहास में इससे पहले किसी भारतीय राजकुमार (मार्तंड वर्मा) में किसी यूरोपीय किले को घेरने की हिम्मत और दृढ़ता नहीं की यह काफी आश्चर्यजनक है कि शत्रु (त्रावणकोर) ने तट पर कितनी जल्दी इन शक्तियों को निर्मित कर लिया।’’ यह सच है क्योंकि मार्तंड वर्मा के त्रावणकोर के बल ने लगभग 15000 सैन्य शक्ति के साथ जून 1741 तक डच सेनाओं को घेराबंदी कर दी थी। 420 सैनिकों की डच सेना 27 जुलाई 1741 को कन्यकुमारी से चली किंतु त्रावणकोर की बड़ी सैन्य शक्ति के सामने वे बेबस थी। रिजटेल ने अपने उच्चाधिकारियों को बार-बार अधिक अतिरिक्त सैन्य बल भेजने को कहा किंतु न तो कोलंबो से कुछ प्राप्त हुआ और न ही बताविया से। 1740-41 के दौरान डच और त्रावणकोर की सेनाओं के बीच आमने-सामने कई युद्ध हुए। इसी प्रकार के एक युद्ध (2 अगस्त 1741) में डच कमांडर रिजटेल के सिर में चोट आई और अपने देश के लिए लड़ते हुए उसने अपनी अंतिम सांस ली। अन्य डच सैनिकों को पकड़ लिया गया जिसमें यूस्ताच डी लनॉय और डोनाल्डी, दोनों फ्लेमिश मूल के, शामिल थे। इनमें से पहले वाले को मार्तंड वर्मा द्वारा सैन्य स्थापना का प्रभारी बनाया गया क्योंकि वह काफी सक्रिय एवं अनुशासित था तथा डच शक्ति के पतन (1741-1795) के दौरान राज्य के सान्य इतिहास में प्रमुख भूमिका निभाई थी। देशी सेनाओं ने कोलाचल के आस-पास 60 कि।मी। तक बहुत से यूरोपीय और देशी तटों पर अतिक्रमण कर लिया । इससे डचों ने कोचीन तक बात पहुंचाई कि वह यहां के लोगों के आक्रमण को सहन नहीं कर सकते।
कोलाचल स्थित डचों की युद्ध परिषद् ने इस मुद्दे पर 8 अगस्त 1741 को चर्चा की और तत्काल अर्थात् 9 अगस्त 1741 को कन्याकुमारी वापस जाने अथवा कोल्लम में तंगास्सेरी जाने का निर्णय लिया। उनका यह निर्णय कोलाचल में डच सेनाओं के पिछडऩे के मद्देनजऱ था जहां की मूल सेना विशाल, बेहतर शस्त्रों से लैस तथा बेहतर स्थिति में ती ।9 अगस्त 1741 के निर्णायक दिन डच सेना को कोलाचल में सभी लोगों और सामग्री के साथ उनके किले के विध्वंस का अंतिम आघात प्राप्त हुआ।
बहुत से जहाजियों ने दर्ज किया है कि डच झंडा तीन बार फहराया गया और प्रत्येक बार उसे त्रावणकोर द्वारा हटा दिया गया अथवा उड़ा दिया गया। न केवल इतना बल्कि कोलाचल किले के अंतर्गत भीषण विस्फोट हुआ और 600 पाउंड से भी अधिक बारूद सभी तोपें और ग्रेनेड विस्फोटित हो गए। त्रावणकोर सेना में नैयर, इझावा, मारवा और परवान शामिल थे जिनकी प्रत्येक की संख्या 300 से अधिक थी, वह सब कुछ नष्ट कर दिया जो कोलाचल किले में थी। महाराजा मार्तंड वर्मा और त्रावणकोर के प्रधानमंत्री के प्रधान सलाहकार रमाय्यन डलावा के नेतृत्व में मारवा अश्वारोही सेना ने किले पर सीधा आक्रमण किया। पूरे किले में आग लग गई और उसका कुंआ शवों से भर गया। जन हार्टमैन जो कि पास के चर्च में था, के मुताबिक खासतौर पर किला रहने योग्य नही रह गया। एक गोला बारूद से टकराया और देखते ही देखते हर चीज़ में आग लग गई। सारा कोलाचल क्षेत्र ढह गया। डच देखते ही रह गए क्योंकि वे कुछ नहीं कर सकते थे। उन्होंने मार्तंड वर्मा की रणनीति और कौशल की पूर्ण गहनता को पहचाना।
यहां की सेना द्वारा उनकी घेराबंदी के साथ ही उन्होंने बिना शर्त समर्पण कर दिया और शांति का निवेदन किया। उन्होंने उनके शांतिपूर्ण वापसी की आज्ञा मांगी जिसे मार्तंड वर्मा ने गरिमापूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया । कोचीन में हुई युद्ध परिषद ने निष्कर्ष निकाला कि कोलाचल में डच तबाही का मुख्य जिम्मेदार हैकर्ट था। बिना आदेश के उसने अपनी सेना को तुतुक्कुडी भेज दिया और बाद में कोलाचल को बचा नहीं सका। हालांकि वह डच युद्ध परिषद का भूतपूर्व अध्यक्ष था किंतु उसके भूतपूर्व कनिष्ठों द्वारा उसे सजा सुनाई गई और बताविया भेज दिया गया जहां 1743 में बंधक के रूप में उसकी मृत्यु हुई।
डच ईस्ट इंडिया कंपनी में भारत के पूर्वी हिस्से के मुकाबले पश्चिमी हिस्से में अधिक अति आत्मविश्वासी अधिकारी थे। उन्हें त्रावणकोर से इतने लंबे और कड़े संघर्ष की आशंका कभी नहीं थी। वास्तविकता स्वीकार नहीं करने के कारण उन्होंने त्रावणकोर की सैन्य शक्तियों को कमतर आंका। कोचीन, नेदुमनगड आदि के साथ उसकी मित्रता उसके लिए विध्वंसक साबित हुई। दूसरी तरफ यदि डच मार्तंड वर्मा पर भरोसा दिखाते तो पश्चिमी तट पर उनका प्रभाव 1947 तक भी रह सकता था। डच नीति निर्माता कमजोर निर्णायक साबित हुए और अपने फैसले में गलती की जसकी उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। समूचे केरल तट से कालीमिर्च के व्यापार का नुकसान।
कोलाचल के युद्ध के परिणामत: पश्चिमी निवासियों की पूर्व के देशों पर अजेयता का मिथक टूट गया। इसने उप राष्ट्रवाद के युग की शुरूआत की जिसके फलस्वरूप कई राज्यों में अधिक से अधिक विदेश विरोधी, साम्राज्य विरोधी तथा उपनिवेश विरोधी संघर्ष किए गए । यहां तक कि उपनिवेश स्थापित होने के समय भी एशिया और अफ्रीका में बहुत से विदेश विरोधी आंदोलन साकार हो रहे थे।
कोई आश्चर्य नहीं कि, कुरूबरनाड, केरल वर्मा, पझास्सी राजा (1795-1805) रियासतें कुरिचय, कुरमबरार और चेट्टियों आदि जनजातियों के सहयोग से ब्रिटिशों के खिलाफ उदित हुईं। त्रावणकोर के दीवान वेलु तम्पी दलावा (1765-1809) ने कोचीन की सहायता से ब्रिटिश विरोधी संघर्ष किया। पझासी राजा (30-11-1805) और वेलु तम्पी (29-03-1809) दोनों- 1857 के विद्रोह से आधी सदी पूर्व केरल की ओर से शहीद हुए आजादी के लिए।
(लेखक सेंटर फॉर हेरिटेज स्टडीज, केरल के महानिदेशक हैं।)