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विशेष लेख


Issue no 26, 25 September - 01 October, 2021

याद कर लेना कभी .... शहीदों के खत

(पुस्तक अंश)

 

यह सही है कि अंग्रेजों ने हमारे देश पर दो शताब्दियों से भी अधिक समय तक शासन किया. पर साथ ही यह भी सही है कि हमारे देश की जनता ने उस शासन को कभी भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया. प्रारंभ में ही किसी न किसी रूप में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध यह असहमति प्रकट होती रही. उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से ही अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह की चिंगारियां उठने लगी थीं और 1857 में तो इस विद्रोह ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का रूप ही ले लिया, जिसे 'गदरभी कहा जाता है. यह एक सशस्त्र विद्रोह था जो सफल न हो सका. बहादुरशाह ज़फ़र के नेतृत्व में इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तात्या टोपे जैसे प्रतापी देशभक्तों ने भाग लिया.

 

इसके लगभग आधी शताब्दी बाद महात्मा गांधी के नेतृत्व में विदेशी शासन के अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें तत्कालीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रमुख भूमिका रही पर इसके साथ-साथ एक समानांतर विरोध भी चलता रहा, जो अहिंसक आंदोलन को पर्याप्त नहीं मानता था और फिरंगियों के शस्त्र उठाना भी आवश्यक मानता था. इसमें चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद 'बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला खां, भगवतीचरण वोहरा, भगतसिंह, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त आदि शहीदों ने सक्रिय भाग लिया और देश के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया.

 

इन क्रांतिकारी शहीदों ने समय-समय पर अपने माता-पिता, बहन-भाई, साथियों, मित्रों को जो पत्र लिखे. प्रकाशन विभाग की पुस्तक 'याद कर लेना कभी .... शहीदों के खत इन्हीं खतों का संकलन है. जो अपनी मार्मिकता के कारण हमें उद्वेलित और रोमांचित करते हैं.

 

भूले बिसरे नायक

 

बटुकेश्वर दत्त

भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने राजनैतिक बंदियों से किए जाने वाले व्यवहार में सुधार करवाने के लिए भूख हड़ताल करने की योजना बनाई थी. भूख हड़ताल का नोटिस देते हुए बटुकेश्वर दत्त ने लाहौर जेल के सुपरिंटेंडेंट को यह पत्र लिखा था: