प्राचीन काल से ही मानव अपनी आन्तरिक भावनाओं, अनुभूति, सोच और कल्पनाओं को अभिव्यक्त और संप्रेषित करने के लिए विभिन्न माध्यमों का सहारा लेता रहा है। इस हेतु उसने विभिन्न रेखाचित्र, प्रतीक और रहस्यात्मक चित्रलिपि का प्रयोग किया है। इस तरह के संप्रेषण के लिए इतिहास साक्षी है और आज भी इसके उदाहरण चीनी चित्रलिपि के रूप में विद्यमान हैं। पाषाण काल में मानव जिन पत्थरों का प्रयोग आखेट के लिए उपकरण आदि के रूप में किया करता था कालान्तर में वही उसकी अनुभूति और कल्पनाओं को प्रकट करने का माध्यम बन गया। विभिन्न सभ्यता से प्राप्त मूर्ति और अन्य कलाकृतियां तत्कालीन सामाजिक विकास की कहानी को स्पष्ट करती है। सिन्धु-घाटी सभ्यता से प्राप्त मृदशिल्पादि उस समय के विकसित मानव समाज को परिलक्षित करता है और हमें कई जानकारियों से अवगत कराता है। इसलिए कहा गया है कि "The art is very necessary to know fully about a country or a civilization of a race." कला के प्रस्तुतीकरण के लिए मूर्ति निर्माण एक त्रि-आयामी माध्यम है। लोक मान्यता, धार्मिक विश्वास, परम्परागत आस्था आदि का सुन्दर समन्वयन मूर्ति निर्माण में परिलक्षित होता है। यहां इस पत्र में 3-D (त्रिआयामी) अभिव्यक्ति 'मूर्तिकला अथवा प्रतिमा निर्माण की कला पर प्रकाश डाला जा रहा है, जो निश्चित रूप से उन युवाओं के लिए लाभदायक हो सकेगा जो इस क्षेत्र में अपना भविष्य बनाना चाहते हैं।
मूर्तिकला त्रिआयामी, ठोस और मूर्त (साकार) रूप में चाक्षुष अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। यह राउण्ड व रीलिफ आकार में हो सकता है, जिसका प्रयोग अनादिकाल से भारतीय सभ्यता में प्रचलित है। मूर्तियों का प्रयोग अभिव्यक्ति, पूजन-उपासना, सजावट, भय,स्मृति और पहचान आदि हेतु सहस्त्राब्दियों से होता रहा है। भारतीय शास्त्रों में वेद, उपनिषद्, पुराणादि ने मूर्ति के निर्माण, उपयोग और महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है। बाद में रामायण व महाभारत के साथ बौद्ध एवं जैन धर्म ने भी विभिन्न प्रकार की मूर्तियों एवं धर्म में इसकी भूमिका पर विस्तार से मार्ग दर्शन प्रस्तुत किया है। यहां तक कि ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए मूर्तियों का सहारा लिया गया है। भारत के साथ विदेशों में भी अनेकानेक मन्दिर और कला मण्डप उपलब्ध हैं, जो मूर्तिकला के शाशवत अवदान का वर्णन प्रस्तुत करते हैं। भारतीय इतिहास का मध्यकाल इस प्रकार के अनेकों उदाहरण को समेटे हुए है। अस्तु यह माना जा सकता है कि मूर्तिकला ने समाज में धर्म, आस्था, मूल्य और संस्कृति की स्थापना व विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। आज भी भारतीय मूर्तिकला हेतु देश में कई स्थल ख्यातिलब्ध हैं। हम सभी खजुराहो, अजन्ता, एलोरा, सारनाथ, कोणार्क आदि की मूर्तिशिल्प से भली-भांति परिचित हैं गांधार, मथुरा और कुषाणकालीन मूर्तियां
उस अवधि के सांस्कृतिक विकास को प्रर्दशित करती हैं। हमारे देश में वर्ष भर
सांस्कृतिक गतिविधियों का आयोजन होता रहता है, जिनमें अवसर अनुरूप मूर्तियों के
प्रयोग का प्रचलन है। मन्दिर और पूजागृह की मूर्तियां स्थायी होती हैं, जबकि सामयिक
और अवसर विशेष - उत्सव आदि के लिए प्रयुक्त मूर्तियां अस्थायी होती हैं। भारतीय
धर्म में क्षेत्रानुसार हजारों व्रत व पूजा का उल्लेख मिलता है जिनमें विभिन्न प्रकार के
मूर्ति निर्माण की व्यवस्था दी गई है। ऐसे लाखों देवी-देवताओं का उल्लेख भारतीय
शास्त्रों में मिलता है जिनकी पूजा-अर्चना व्रत और अनुष्ठान के अनुरूप की जाती है।
आगे मूर्तिकला का अर्थ, महत्व, प्रकार, व्यवसायिक पक्ष, उपलब्ध शिक्षण - प्रशिक्षण संस्थानों के साथ रोजगार के अवसर आदि पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है, जो निश्चित ही नवोदित कलाकारों को मार्गदर्शन प्रदान कर सकेगा।
चाक्षुष व मंचन कला के संयुक्त रूप में ललित कला मानव मन-मष्तिष्क को शांति प्रदान
करने में एक औषधि का कार्य करती है तथा इसका प्रयोग ध्यान, अभिव्यक्ति, आनन्द एवं
आत्म संतुष्टि के साधन के रूप में किया जाता है। ललित कला के अन्तर्गत मूर्तिकला भी
चित्रकला जैसी ही चाक्षुष अभिव्यक्ति और प्रस्तुति की एक शाखा है। जहां चित्रकला
द्विआयामी अभिव्यक्ति प्रस्तुति करती है वहीं मूर्तिकला त्रिआयामी अभिव्यक्ति का सशक्त
माध्यम है। मूर्ति निर्माण व सृजन हेतु कई माध्यम व प्रक्रिया का प्रचलन है जिसमें
विभिन्न प्रकार की सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। मूर्ति निर्माण के लिए जिन
माध्यमों का सहारा लिया जाता है उनमें पाषाण, काष्ठ, धातु, मृण्मूर्ति महत्वपूर्ण हैं। इन
माध्यमों से निर्मित आकृतियों में जन-सामान्य विशेष की संस्कृति का आभास होता है।
आज यह कला मृण्मूर्ति, पाषाण, काष्ठ, धातु की यात्रा से गुजरते हुए कांच, फाइबर
ग्लास, प्लास्टिक एवं अन्य सृजनात्मक माध्यम तक पहुंच चुकी है।
वर्गीकरण :
मूर्तिकला का वर्गीकरण कई मापदण्डों पर किया जा सकता है। यहां निम्न बिन्दुओं को
आधार मान कर इसे वर्गीकृत करने का प्रयास किया जा रहा है :-
क. स्थायित्व के आधार पर -
1. स्थायी 2. अस्थायी
ख. आकार व स्वरूप के आधार पर-
1. राउण्ड 2. रीलिफ
ग. साधन व सामग्री के आधार पर-
1. मिट्टी-मृण्मूर्ति 2. प्लास्टर ऑफ़ पेरिस
3. धातु, 4. सीमेण्ट, 5. पाषाण, 6. काष्ठ,
7. फाइबर ग्लास/सिन्थेटिक स्टोन,
8. मोम व लाख आदि, 9. एसेम्बलिंग विद
मिक्स मिडिया आदि।
घ. पद्धति के आधार पर- 1. मॉडलिंग,
2. मोल्डिंग-कास्टिंग, 3. कार्विंग,
4. प्रतिस्थापन (इन्स्टॉलेशन) आदि।
इसके अलावा हम इसे अवधि, उपासना जैसे कि शैव, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन धर्म
आदि के आधार पर भी वर्गीकृत कर सकते हैं। हम मूर्तिकला में बाहरी और अंदरूनी
मूर्तिकला के रूप में भी भेद कर सकते हैं। सजावट, उपासना तथा जीवन एवं चित्र
आदि के लिए मूर्तिकला।
यहां पद्धति, निर्माण विधि व प्रक्रिया आधारित मूर्तिकला के बारे में संक्षेप में प्रकाश डाला जा
रहा है, जो युवा कलाकारों के साथ ही परम्परागत कुम्हार और मूर्तिकार के लिए
उपयोगी सिद्ध हो सकेगा।
मॉडलिंग :
मूर्ति निर्माण के लिए यह प्रक्रिया सर्वाधिक प्राचीन मानी जाती है, खास कर मृण्मूर्ति और
विसर्जन (व्रत व पूजा) योग्य प्रतिमाओं के लिए। इस पद्धति में गीले लचीले सामग्रियों
(जिसमें हाथों के द्वारा ही वांछित आकार सृजित किया जा सके) का प्रयोग किया
जाता है। गीली मिट्टी को हम चाक अथवा मुक्त हस्त ही मनमोहक आकार प्रदान कर
सकते हैं और इसे सुखाने पर पकाया भी जा सकता है। ईश्वर-सृजित मिट्टी (पृथ्वी) के
प्रयोग का पौराणिक सन्दर्भ का विशाल भण्डार है। "The legend has it that Shiva created this earth with a lamp of mud brought by crab from Pataal." पाताल
से प्राप्त मिट्टी से ही हमारी सभ्यता विकसित हुई। आज उपयोगिता व आवश्यकता के
साथ ही साथ कला के नमूने भी मिट्टी की आकृतियों में सृजित किए जाते हैं। परम्परागत
कुम्हार मृण्मूर्ति निर्माण के इस तकनीक को प्राचीन काल से प्रयोग में ला रहे हैं।
अतः इस क्षेत्र में रोजगार व व्यवसाय की विशाल संभावना निरन्तर बनी रहती है। युवा
वर्ग इसे अपने भविष्य के लिए रोजगार के रूप में चयन कर आगे बढ़ सकते हैं।
मोल्डिंग-कास्टिंग :
मूर्ति निर्माण की यह पद्धति दो प्रक्रियाओं से युक्त है। प्रथम मोल्डिंग जो मोल्ड (सांचा)
बनाने की प्रक्रिया है और आकृति की मॉडलिंग पूर्ण होने के पश्चात प्लास्टर ऑफ
पेरिस, रबर आदि से बनाया जाता है। दूसरा कास्टिंग (ढलाई) की प्रक्रिया है, जो पूर्णतः
सांचे पर निर्भर करती है। आधुनिक मूर्तिकला के क्षेत्र में यह पद्धति महत्वपूर्ण भूमिका का
निर्वाह करती है। इस प्रक्रिया से मिट्टी की मूर्ति को प्लास्टर ऑफ पेरिस, धातु, सीमेण्ट,
फाइबर ग्लास/सिन्थेटिक स्टोन आदि में आसानी से बदला जा सकता है। इस विधा
से जीर्ण-शीर्ण परम्परागत प्राचीन प्रतिमा (एंटिक) व दुर्लभ पाषाण, काष्ठ या धातु की
कलाकृतियों की प्रतिकृतियां किसी भी माध्यम में तैयार की जा सकती हैं। इस प्रकार इस
विधा से दुर्लभ कृतियों का संरक्षण भी संभव हो पाता है। एक ही कलाकृति की अनेकानेक
प्रतिकृतियां निर्माण हेतु यह माध्यम सर्वथा उपयुक्त है। इस प्रक्रिया के निरन्तर अभ्यास
और साधना से समय, धन व उर्जा को बचाया जा सकता है। विशाल आकृति अथवा
आदमकद मुखाकृति के निर्माण सृजन में भी इस पद्धति का सहारा लिया जा सकता है।
यह तकनीक किसी भी प्रकार की मूर्ति निर्माण के लिए उपयोगी है। वह व्यक्ति जो मॉडलिंग
का पर्याप्त ज्ञान नहीं रखता है वह भी इस विधि के सहयोग से मूर्तिकला के क्षेत्र में कार्य
कर सकता है। ऐसे व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने संग्रह में आवश्यकतानुसार कलाकृतियों
के मोल्ड्स का अच्छा भंडार अपने पास रखें और मोल्डिंग-कास्टिंग तकनीक का प्रशिक्षण
व ज्ञान प्राप्त कर लें।
कार्विंग :
ठोस तथा कठोर माध्यम यथा पाषाण व काष्ठ को तराश कर मूर्ति निर्माण की पद्धति प्राचीन
काल से प्रचलित है। हम परम्परागत तरीके से पाषाण में निर्मित अनेकों उत्कृष्ट कलाकृतियों
से अवगत हैं जो कार्विंग तकनीक पर आधारित है। पाषाणीय आकृति के निर्माण का
इतिहास हमें पाषाण युग से ही मिलता है। लोक जीवन में विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु
पत्थर की आकृतियों का निर्माण किया जाता है। "To the worshipper, a stone assumes a powerful from the moment, it is lifted worked and put under a tree or a canopy with a tripod trident marked on it." इनमें निर्मित पाषाणीय आकृतियों में पूजा हेतु मूर्तियां,
प्रतीक, खम्भे आदि निर्मित किए जाते हैं। अपने मृतक परिजनों की याद में भी स्तम्भ
बनाए जाने की परम्परा प्रचलित है।मृतक स्तम्भ को बीत उरुसकाल खम्भ और मठ के
नाम से जाना जाता है। मृत व्यक्ति की स्मृति को चिरकाल तक जीवित रखने के लिए
इसका निर्माण किया जाता है। इस तरह की पत्थर की मूर्तियों का निर्माण आदिवासी
कला में अधिक प्रचलित है। सामान्यतया मन्दिर में प्रतिस्थापित प्रतिमाएं पाषाण (पत्थर)
की बनी होती हैं, जो बलुई पत्थर, संगमरमर, ग्रेनाइट आदि की हो सकती हैं। खजुराहो
एवं एलोरा आदि की बलुई पत्थर की मूर्तियां आज भी वर्ष भर सारे विश्व के दर्शकों को
आकर्षित करने में समर्थ है।
काष्ठ की उपयोगिता मानव जीवन में अति प्राचीन है। गृह निर्माण में इसका प्रयोग अति
प्राचीन है। "Wood was probably the most ancient building material for civic and royal architecture in India." लोक आकार का सृजन हमें लकड़ी के बने घोटूल, खाट, पालकी, दीप स्तम्भ, शहतीर, चौखट, दरवाजे आदि के साथ मूर्तियों में देखने को मिलता है। कई शास्त्रों में भी लकड़ी की प्रतिमा का सन्दर्भ आता है। काष्ठ (लकडी) को तराश कर आकर्षक आकृति
प्रदान की जाती है और इस प्रकार की प्रतिमाएं भी मन्दिरों में स्थापित की जाती हैं,
यथा-उड़ीसा में पुरी के मन्दिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की काष्ठ
प्रतिमाएं प्रसिद्ध हैं। काष्ठ में अलंकरण की परम्परा के साथ भारतीय मॉइथॉलॉजी के
विभिन्न रूपों का उद्रेखन होता है। कई देवी-देवताओं की मूर्तियां काष्ठ से निर्मित
होती हैं।'' काष्ठ स्तम्भ में भी लोक संस्कृति की भावना स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती हैं।
शिवलिंग - शिव व शक्ति का सर्वाधिक पवित्र एवं अमूर्त रूप है और यह प्रकृति एवं
सृजनकर्ता के समन्वित स्वरूप को व्यक्त करता है, भारतीय मूर्तिकला की अनूठी
पहचान है। भारत की एक अन्य प्रसिद्ध आकृति शिव के नटराज स्वरूप को माना
जाता है, और यह भगवान शिव के ताण्डव नृत्य को प्रदर्शित करता है। यह प्रतिमा जीवन
के नव सृजन हेतु किये गये विनाश अथवा संहार का द्योतक है। इस प्रकार से मूर्ति
निर्माण हेतु प्रयुक्त कार्विंग पद्धति एक ठोस और स्थायी विधा है। युवा एवं परम्परागत
मूर्तिकार (कार्वर) इस पद्धति के सघन व उपयुक्त शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त कर अपनी
क्षमता और पारिश्रमिक को बढ़ा सकते हैं।
प्रतिस्थापन (इन्स्टॉलेशन) :
यह विधा विभिन्न सामग्रियों द्वारा अपनी भावना, सोच व कल्पना को प्रर्दशित करने का
एक नवीन व सृजनात्मक माध्यम है। इस पद्धति में कुछ उपयुक्त और वांछित सामग्रियों
को उत्कृष्ट संयोजन द्वारा व्यवस्थित कर प्रर्दशित किया जाता है और एक आकर्षक
शीर्षक से लोगों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। इस विधा में सामग्री और माध्यम
महत्वपूर्ण नहीं होता अपितु एक कलाकार की सोच और प्रस्तुतीकरण मूल्यवान होता है,
संभवतः इस कारण से ही इसे इन्स्टॉलेशन व एसेम्बलिंग की संज्ञा दी गई है। यह माध्यम
मात्र अप्रत्यक्ष, अमूर्त और आधुनिक कला अभिव्यक्ति के लिए ही उपयुक्त होता है।
इसके अन्तर्गत वास्तविक शैली के मूर्ति का निर्माण कदापि संभव नहीं है, साथ ही इस
विधा में कार्य करने हेतु कलात्मक अभिरुचि तथा सामयिक कला प्रचलन (trends) का
पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक है।
व्यावसायिक पक्ष :
भारत के साथ विदेशों में भी आज मूर्तियों की मांग लगातार बढ़ती जा रही है, जिस कारण
इसे उद्यम के रूप में चुना जा सकता है। हजारों स्थायी-अस्थायी मूर्तियों का निर्माण
सृजन वर्ष भर होता रहता है, जो इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर को उपलब्ध कराता
है। आज सड़क के चौराहों पर, उद्यान व वाटिका में, भवनों के लॉन व बैठकखाने
(drawing rooms), आदि में मूर्तियों की स्थापना के प्रति लोगों का रुझान व रुचि
दिनानुदिन बढ़ती जा रही है।
आज एक-से-एक नये व सृजनात्मक माध्यमों में मूर्तियों का निर्माण संभव है। गन
मेटल, पंचधातु, अष्टधातु, पेपर मैशि , सेरामिक आदि के साथ हाथी दांत, सींग व हड्डी की
सुन्दर व लुभावनी कलाकृतियों के लिए भारत सदियों से प्रसिद्ध है।
शिक्षण-प्रशिक्षण :
आज मूर्तिकला के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रम कई संस्थानों में उपलब्ध हैं। युवा
वर्ग अपनी रुचि व आवश्यकतानुसार उपाधि पाठ्यक्रम एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम के साथ
लघुकालिक प्रमाणपत्रीय पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेकर उपयुक्त ज्ञान अर्जन कर सकते हैं। इस
हेतु निम्न संस्थानों से सम्पर्क किया जा सकता है-
कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ, उ०प्र०।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उ०प्र०।
एम० एस० युनिवर्सिटी, बड़ौदा, गुजरात।
कला भवन, विश्वभारती, शांतिनिकेतन, प. बंगाल।
इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़, छत्तीसगढ।
सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्टस, मुम्बई, महाराष्ट्र।
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, राजस्थान।
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय, चित्रकूट, म.प्र.।
कालेज ऑफ आर्टस, नई दिल्ली।
कालेज ऑफ आर्टस, चेन्नै, तमिलनाडु।
कालेज ऑफ आर्ट्स, पटना, बिहार।
इत्यादि।
उपरोक्त संस्थानों के साथ कई अन्य महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में उपाधि
पाठ्यक्रम ललित कला स्नातक (बी.एफ.ए) एवं ललित कला परास्नातक (एम.एफ.ए.) में
मूर्तिकला और डिजाइन पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं। जबकि कई संस्थान अल्पकालिक डिप्लोमा
और प्रमाणपत्रीय पाठ्यक्रम भी उपलब्ध कराते हैं। जैसे लखनऊ कला एवं शिल्प महाविद्यालय
का क्ले मॉडलिंग पाठ्यक्रम आदि।
रोजगार के अवसर :
यह विषय मूलतः स्वरोजगारोपरक है प्रतिभावान युवा स्वतंत्र कलाकार के रूप में
अपना व्यवसाय आरम्भ कर सकता है और अन्य को भी रोजगार उपलब्ध कराने में
समर्थ हो सकता है। इसके अतिरिक्त सरकारी क्षेत्रों के साथ निजी क्षेत्रों और
उपक्रमों में भी मूर्तिकला विशेषज्ञों की मांग निरन्तर बनी रहती है। मूर्तिकला विशेषज्ञों
को जिन क्षेत्रों में रोजगार के अवसर प्राप्त हो सकते हैं उनमें निम्न उल्लेखनीय है -
क. स्वतंत्र कलाकार (freelance artist)
ख. शिक्षा के क्षेत्र में अवसर (Teaching fields)
टी.जी.टी. शिक्षक - नवोदय विद्यालय,
केन्द्रीय विद्यालय के साथ डी.पी.एस. आदि निजी विद्यालयों में।
पी.जी.टी./इन्टरमीडियट शिक्षक - माध्यमिक स्तर के विद्यालयों में।
प्रशिक्षक एवं अनुदेशक - सरकारी तथा निजी क्षेत्रों के अन्य संस्थानों में।
प्राध्यापक-उच्च शिक्षण संस्थान, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालयों हेतु।
मॉडलर के रूप में - राष्ट्रीय/राजकीय संग्रहालय के साथ सांस्कृतिक संरक्षण
केन्द्र आदि में।
निजी क्षेत्रों में- कांच, शीशा, शू फैक्टरी आदि क्षेत्रों में डिजाइनर के रूप में।
मूर्तिकला के उपरोक्त वर्णित माध्यम व तकनीक, व्यावसायिकता, शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान,
रोजगार के क्षेत्र आदि नवोदित कलाकार के साथ परम्परागत कलाकारों को निश्चित ही
एक नई दिशा व दशा प्रदान करने में समर्थ है। इस क्षेत्र में व्यावसायिकता का समावेश सदियों
प्राचीन है और निश्चित रूप से इसने कलाकारों को मजबूत सहारा दिया है। अस्तु, निष्कर्षतः
यह कहा जा सकता है कि ललित कला की यह बेटी मूर्तिकला सर्वदा ही रोजगार उत्पादन के
लिए स्वीकार की जाती रहेगी।