स्वच्छ पर्यावरण के लिये वाहन प्रदूषण नियंत्रण
पार्थिव कुमार
भारत के लगातार फैलते शहर और उनमें तेजी से बढ़ती मोटर वाहनों की तादाद हमारी प्रगति और संपन्नता के प्रतीक हैं. सडक़ों पर आपस में होड़ करते वाहनों ने शहरों की दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही आबादी के लिये यात्रा और माल ढुलाई आसान बनाने के अलावा रोज़गार के काफी अवसर भी पैदा किये हैं. लेकिन साथ ही वाहनों की संख्या में अनियंत्रित वृद्धि ने हमारे शहरों में वायु प्रदूषण को बेहद खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है. स्थिति इस हद तक गंभीर हो चुकी है कि मोटर वाहनों से निकलने वाली ज़हरीली गैसों और धूल कणों की वजह से हर साल लाखों लोग गंभीर बीमारियों के शिकार बन रहे हैं. लिहाजा, वाहनों से होने वाले प्रदूषण को काबू में लाने के लिये सरकार के कार्यक्रमों को आम नागरिकों की भागीदारी से सख्ती और ईमानदारी के साथ लागू करना मौजूदा समय की बड़ी जरूरत बन गया है.
1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के समय तक देश में वाहनों की संख्या में वृद्धि की रफ्तार बेहद धीमी थी. तब तक सालाना 10 लाख से भी कम वाहन पंजीकृत किये जा रहे थे. लेकिन इसके बाद इनकी तादाद तेजी से बढ़ी और मौजूदा समय में सालाना 2 करोड़ से भी ज्यादा नये वाहन पंजीकृत किये जा रहे हैं. सकल घरेलू उत्पाद में 7 प्रतिशत की बढ़ोतरी वाहनों की मांग को 10 फीसदी तक बढ़ा देती है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार फिलहाल देश में लगभग 18.6 करोड़ वाहन हैं. शहरी परिवहन विशेषज्ञ एन. रंगनाथन के अनुसार इनकी तादाद 2030 में कम-से-कम 35 करोड़ तक पहुंच जाने का अनुमान है.
दिन-रात दौडऩे वाले ये करोड़ों वाहन हमारे शहरों की हवा में रोज़ाना कई हजार मीट्रिक टन कार्बन डाईआक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड्स, नाइट्रस आक्साइड, सल्फर डाईआक्साइड, वाष्पशील कार्बनिक यौगिक, धूल कण और हाइड्रोकार्बन जैसे ज़हर उगल रहे हैं. इन शहरों में धूल कण तथा सल्फर डाईआक्साइड और नाइट्रोजन डाईआक्साइड जैसे विषाक्त पदार्थों की मौजूदगी चिंताजनक स्तर तक पहुंच चुकी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित 20 शहरों में 13 भारत के हैं और इस सूची में दिल्ली सबसे ऊपर है.
शहरों के वायु प्रदूषण में वाहनों का योगदान लगभग 70 प्रतिशत है. कार्बन मोनोक्साइड का तो 90 प्रतिशत से भी ज्यादा उत्सर्जन वाहनों से ही होता है. भारत का परिवहन क्षेत्र कुल ऊर्जा के लगभग 17 प्रतिशत हिस्से का उपभोग करता है. लेकिन यह 60 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिये जिम्मेदार है. महानगरों में से दिल्ली में 66 प्रतिशत, मुंबई में 52 प्रतिशत और कोलकाता में 33 प्रतिशत वायु प्रदूषण परिवहन क्षेत्र से होता है.
वाहनों से होने वाले प्रदूषण की वजह से हर साल लाखों लोग दिल, दिमाग, फेफड़ों, आंखों और चमड़ी की गंभीर बीमारियों तथा कैंसर जैसे खतरनाक रोगों का शिकार हो जाते हैं. उनके इलाज पर खर्च के कारण आर्थिक संसाधनों का बड़ा नुकसान होता है. देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3 प्रतिशत हिस्सा वायु प्रदूषण से संबंधित बीमारियों के इलाज पर खर्च होता है. देश में वायु प्रदूषण से पैदा रोगों से 2010 में 620000 और 2012 में लगभग 1500000 लोगों की मौत हो गयी थी.
वाहनों की संख्या में वृद्धि की दर को घटाना आसान नहीं है. भारत तेज शहरीकरण के दौर से गुजर रहा है. अगले दो दशकों में देश की ज्यादातर आबादी गांवों को छोड़ शहरों में पहुंच चुकी होगी. इससे मोटर वाहनों की जरूरत और मांग में जबर्दस्त इजाफा होने की संभावना है. कुछ शहरों में तो पिछले एक दशक में वाहनों की संख्या दोगुनी हो चुकी है.
इसके अलावा वाहनों की संख्या किसी देश के विकास को मापने का एक पैमाना भी होती है. प्रति 1000 व्यक्ति वाहनों की सर्वाधिक संख्या वाले देशों की सूची में भारत का स्थान 144वां है. हमारे देश में प्रति 1000 व्यक्ति वाहनों की तादाद सिर्फ 32 है. दक्षिण एशिया के देशों में भी श्रीलंका (76) और भूटान (57) इस लिहाज से भारत से आगे हैं. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों में तो प्रति 1000 व्यक्ति वाहनों की संख्या 700 से भी ऊपर पहुंच चुकी है.
शहरों में वाहनों से होने वाले प्रदूषण में तेज इजाफे के लिये सिर्फ इनकी लगातार बढ़ती संख्या ही जिम्मेदार नहीं है. हमारी सडक़ों पर चलने वाले वाहनों की औसत उम्र बहुत ज्यादा है. उनमें से अधिकतर के निर्माण में पुरानी पड़ चुकी और पर्यावरण के लिये नुकसानदेह प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया गया है. छोटे शहरों में तो ‘जुगाड़’ जैसे अनधिकृत वाहन भी गैरकानूनी ढंग से बड़ी संख्या में चल रहे हैं. देश में वाहनों की पर्यावरण अनुकूलता की जांच और रख-रखाव की सुविधाएं भी पर्याप्त नहीं हैं.
विशेषज्ञों के अनुसार सडक़ों की खराब दशा और दोषपूर्ण यातायात प्रबंधन की वजह से भी ट्रैफिक जाम और वाहनों से होने वाला प्रदूषण बढ़ता है. शहरों का विकास योजनाबद्ध ढंग से नहीं होने के कारण इनके निवासियों को अपने रोजमर्रा के कामकाज के लिये लंबी दूरी तक यात्राएं करनी पड़ती हैं. इससे सार्वजनिक और निजी वाहनों पर उनकी निर्भरता में इजाफा होता है. इसके अलावा शहरों में गगनचुंबी इमारतों के कारण वाहनों से निकलने वाला धुआं छंट नहीं पाता और जमीनी स्तर पर ही मंडराता रहता है. मिलावटी ईंधन वाहनों से होने वाले प्रदूषण की समस्या को और भी पेचीदा बना देता है.
सरकार ने वाहन प्रदूषण से जुड़े तमाम पहलुओं पर गौर करते हुए इससे निपटने के लिये तीन स्तरीय रणनीति अपनायी है. इसका सबसे अहम हिस्सा ‘मास रैपिड ट्रांजिट’ प्रणालियों समेत सार्वजनिक परिवहन का विस्तार कर इसे सस्ता, सुलभ और भरोसेमंद बनाना है ताकि लोग इसका ज्यादा-से-ज्यादा इस्तेमाल करें और सडक़ों पर निजी वाहनों की भीड़ घटे. इसके अलावा सरकार डीजल और पेट्रोल जैसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले ईंधनों के बजाय तरल पेट्रोलियम गैस (एलपीजी) और संघनित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) के इस्तेमाल तथा इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा दे रही है. वह पुराने और अधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को सडक़ों से हटाने के लिये ठोस कदम उठा रही है. उसने उत्सर्जन के नये मानक निर्धारित कर इनके अनुपालन की पुख्ता व्यवस्था की है ताकि वाहन निर्माता पुरानी प्रौद्योगिकी को छोड़ नयी और पर्यावरण के अनुकूल तकनीक अपनायें.
भारत में वाहनों की कुल संख्या का 70 प्रतिशत से अधिक हिस्सा मोटर साइकिलों और स्कूटरों का है. वे शहरों में वायु प्रदूषण के सबसे बड़े स्रोत हैं. दोपहियों के साथ कारों को भी शामिल कर लें तो कुल मोटर वाहनों में परिवहन के निजी साधनों का हिस्सा 85 प्रतिशत से अधिक हो जाता है. वायु प्रदूषण पर प्रभावी ढंग से नियंत्रण के लिये परिवहन के सार्वजनिक साधनों के उपयोग को बढ़ावा देना और निजी वाहनों का इस्तेमाल घटाना जरूरी हो गया है.
मौजूदा समय में शहर के अंदर और शहरों के बीच सडक़ परिवहन के प्रमुख सार्वजनिक साधन, बसों की संख्या कुल वाहनों का सिर्फ एक प्रतिशत है. सरकार शहरी विकास के विभिन्न कार्यक्रमों के तहत बसों की संख्या बढ़ाने के लिये लगातार प्रयासरत है. इस काम में निजी क्षेत्र का सहयोग भी लिया जा रहा है. विभिन्न राज्यों के सडक़ परिवहन निगम अपने बेड़ों में आरामदेह और वातानुकूलित बसों की संख्या बढ़ा रहे हैं ताकि बस से सफर को अधिक लोकप्रिय बनाया जा सके.
सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने के मकसद से केन्द्र और राज्य सरकारों के सहयोग से अनेक शहरों में ‘मास रैपिड ट्रांजिट’ प्रणाली का निर्माण किया जा रहा है. कुल 35 शहरों में मेट्रो रेल परियोजनाओं पर काम हो रहा है जिनमें से कोलकाता, चेन्नै, दिल्ली, बेंगलूरु, गुडग़ांव, मुंबई, जयपुर और चेन्नै में तो ये शुरू भी हो चुकी है. ‘बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम’ 11 शहरों में शुरू हो चुके हैं और 13 में इनका निर्माण चल रहा है. इसी तरह मोनोरेल के परिचालन की शुरुआत मुंबई से हो चुकी है और 17 अन्य शहर इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.
सरकार ने 2003 में राष्ट्रीय वाहन ईंधन नीति घोषित की जिसमें उत्सर्जन के यूरोपीय मानकों को लागू करने के लिये समयबद्ध कार्यक्रम निर्धारित किया गया. इसका मकसद वाहन निर्माताओं को पर्यावरण के अनुकूल आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाने के लिये प्रेरित करना था. यूरो-1 मानक इससे पहले 2000 में ही समूचे देश में लागू किया जा चुका था. भारत स्टेज-2 को 2005 में, भारत स्टेज-3 को 2010 में और भारत स्टेज-4 को 1 अप्रैल, 2017 से समूचे देश में लागू किया गया. सरकार ने तय किया है कि वह अब भारत स्टेज-5 के बजाय सीधे भारत स्टेज-6 ही 1 अप्रैल, 2020 से समूचे देश में लागू कर देगी.
ज़हरीली गैसों का उत्सर्जन घटाने के लिये कारों में कैटेलिटिक कनवर्टर लगाना अनिवार्य कर दिया गया है. समूचे देश में 2000 से ही सीसा रहित पेट्रोल इस्तेमाल किया जा रहा है. इसके अलावा ईंधन शोधक कंपनियों ने उत्सर्जन मानकों के अनुरूप पेट्रोल में बेंजीन और डीजल में सल्फर की मात्रा में भी लगातार कमी की है.
सरकार सार्वजनिक और निजी, दोनों तरह के वाहनों में पेट्रोल और डीजल के बजाय एलपीजी, सीएनजी, बॉयोडीजल और एथनॉल ब्लेंड जैसे स्वच्छ ईंधनों के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही है. इसके अलावा इलेक्ट्रिक इंजन वाले वाहनों की खरीद पर सब्सिडी दी जा रही है. इसके लिये फास्टर एडप्शन ऑफ मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हाइब्रिड एंड इलेक्ट्रिक व्हीकल्स इन इंडिया (फेम) नामक योजना चलायी गयी है. केन्द्रीय बजट में इस योजना के लिये 2015-16 में 75 करोड़ रुपये, 2016-17 में 123 करोड़ रुपये और मौजूदा वित्त वर्ष में 175 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया. केन्द्रीय बिजली, कोयला, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा तथा खनन मंत्री पीयूष गोयल ने उम्मीद जतायी है कि 2030 तक देश में सभी वाहन बिजली से चलने लगेंगे.
मोटर वाहनों की जांच और रखरखाव की एक सुविचारित व्यवस्था प्रदूषण को घटाने में काफी कारगर साबित हो सकती है. समय-समय पर वाहनों के निरीक्षण और समुचित रख-रखाव से प्रदूषण 30 से 40 प्रतिशत तक कम करना संभव है. सरकार ने इस दिशा में ठोस कदम उठाते हुए केन्द्रीय मोटर वाहन नियम, 1989 के तहत नियंत्रित प्रदूषण प्रमाणपत्र (पीयूसी) अनिवार्य कर दिया है. इस प्रमाणपत्र से पता चलता है कि वाहन का उत्सर्जन प्रदूषण मानकों के अनुरूप और पर्यावरण के अनुकूल है. सभी वाहन मालिकों के लिये यह जरूरी है कि वे पीयूसी अपने साथ लेकर चलें.
भारतीय परिवहन निगम (टीसीआई) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) कोलकाता के एक साझा अध्ययन के अनुसार राजमार्गों पर देरी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को सालाना 27000 करोड़ रुपये का नुकसान होता है. एक अन्य अनुमान के मुताबिक सडक़ों पर जाम और वाहनों की धीमी रफ्तार के कारण प्रति वर्ष 60000 करोड़ रुपये के अतिरिक्त ईंधन की खपत होती है. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) ने अपने टोल बूथों पर नकदी रहित भुगतान प्रणाली ‘फास्टैग’ शुरू की है. इस इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली से वाहन चालक टोल बूथों पर बिना रुके शुल्क का भुगतान कर आगे निकल सकेंगे.
वाहनों से होने वाले प्रदूषण के खिलाफ और हमारे शहरों की हवा को स्वच्छ बनाने के सरकार के कार्यक्रमों की सफलता के लिये आम नागरिकों का सहयोग महत्वपूर्ण है. किसी भी सरकारी प्रयास की कामयाबी में जनता की सक्रिय भागीदारी की भूमिका सबसे बड़ी होती है. जहां तक हो सके, हमें अपनी यात्राओं में निजी के बजाय सार्वजनिक वाहनों का इस्तेमाल करना चाहिये. कार पूल करना भी सडक़ों पर वाहनों की भीड़ घटाने का एक कारगर उपाय हो सकता है. अपने वाहनों की सही समय पर सर्विस तथा फ्यूल फिल्टर, एयर फिल्टर और ऑयल फिल्टर की नियमित सफाई से भी हम प्रदूषण को घटा सकते हैं. इसके अलावा साइलेंसर का डीकार्बनाइजेशन कर और टायरों में हवा का सही दबाव रख ईंधन की खपत कम की जा सकती है, जिससे प्रदूषण में भी गिरावट आयेगी. विनाशकारी प्रदूषण से खुद और अपनी आने वाली पीढिय़ों की हिफाजत करना हम सब की साझा जिम्मेदारी है.
लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं ईमेल: kr.parthiv@gmail.com
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